Saturday, October 17, 2015

प्रेरक कथा

एक बेटा अपने बूढ़े पिता को वृद्धाश्रम एवं अनाथालय में छोड़कर वापस लौट रहा था;
उसकी पत्नी ने उसे यह सुनिश्चत करने के लिए फोन किया कि पिता त्योहार वगैरह की छुट्टी में भी वहीं रहें
घर ना चले आया करें !
बेटा पलट के गया तो पाया कि उसके पिता वृद्धाश्रम के प्रमुख के साथ ऐसे घलमिल कर बात कर रहे हैं जैसे बहुत पुराने और प्रगाढ़ सम्बंध हों...
तभी उसके पिता अपने कमरे की व्यवस्था देखने के लिए वहाँ से चले गए..
अपनी उत्सुकता शांत करने के लिए बेटे ने अनाथालय प्रमुख से पूँछ ही लिया...
"आप मेरे पिता को कब से
जानते हैं ? "
मुस्कुराते हुए वृद्ध ने जवाब दिया...
"पिछले तीस साल से...जब वो हमारे पास एक अनाथ बच्चे को गोद लेने आए थे! "

"सेल्फ़-टेस्ट"

आज कुछ भिन्न चिन्तन। "सेल्फ़-टेस्ट"। आज तौलते हैं स्वयं की "भक्ति" को !

शब्दों के भावों से आनुभूतिक परिचय न होते हुए भी हम उनके साथ खेलते हैं; सबको भरमाने के किये, भक्त और ज्ञानी का अघोषित तमगा पाने के लिये। ऐसी विरह-वेदना को दर्शाते हैं कि मानो प्राण अब निकले, अब निकले। एक अदृश्य चाह; मान की, प्रतिष्ठा की। कपट स्वयं से। कपट श्रीहरि से। कपट सभी प्राणियों में उपस्थित वासुदेव से।

हम प्रभु की प्रार्थना क्यों करते हैं? क्यों उनसे मिलन की आकांक्षा है? मिलने पर क्या देंगे उन्हें? अथवा माँगेगें कुछ, अपने स्वभाव से विवश ! और माँगेगें क्या? विचार करना।
कल्पना करें कि प्रभु प्रगट हो गये ! मुस्कराते हुए बोले कि अब तक जिसने माँगा, सुख ही माँगा। अब सुख का भंडार समाप्तप्राय: है और दु:ख का भंडार खोल दिया गया है। अब जो मेरे पास आवेगा, मुझे स्मरण करेगा; उसे दु:ख ही मिलेगा और अब तक जो सुख उसके पास है, वह भी वापिस ले लिया जावेगा। बहुत दे चुका मैं ! अब तुम मेरे अपने क्या मुझे वह वापिस करने को तैयार हो? क्या दु:खों को भी मेरी कृपा समझकर उतने ही प्रेम और सहजता से अपनाने को उत्सुक हो !
और दास अन्यथा नहीं कहता कि "ऐसे कृपालु प्रभु" से सर्वप्रथम हम ही पीछा छुड़ाना चाहेंगे। जो भूल से उनके पास गया, वह कान पकड़कर क्षमा-प्रार्थना करेगा कि प्रभु ! भूल हुयी। छोटी भूल की इतनी बड़ी सजा न दो ! जो है मेरे पास, वह न बढ़े तो कोई बात नहीं, नष्ट न हो। बड़ा परिश्रम किया है। इस बार क्षमा। पुन: भूल हो तो जो इच्छा, दीजियेगा दन्ड।
"तत्सुख-सुखित्वा" उदधृत करने में, कहने में, प्रवचन देने में बड़ा आदर्श शब्द किन्तु हमारे आचरण में तो "ममसुख-सुखित्वा" ही। कोई दे, बस दे ! हम तो प्रेम का भी व्यापार करने में नहीं हिचकते। हमने अमुक से बहुत प्रेम किया किन्तु उसने उसका मूल्य न समझा वा बदले में प्रेम दिया ही नहीं ! जहाँ शीघ्र ही इच्छा-पूर्ति की आस बंधी; हमने "देवता" बदल लिये ! कलियुग में तो "ये" ही शीघ्र मनोकामना की पूर्ति करते हैं ! बस, ज्ञात हो जाये कि कहीं बँट रहा है, चाहे देने वाला कोई हो, कैसा हो ! अथवा छीनना ही क्यों न पड़े? हमारा ह्रदय कितना उदार ! तेरा क्या, मेरा क्या? सब उन्हीं का दिया हुआ तो जो तेरा वो मेरा ! और मेरा तो मेरा है ही ! तर्क-शक्ति और बुद्धि का प्रयोग येन-केन-प्रकारेण कुछ और अर्जित करने और सुरक्षित रखने में ही। हम जीवन इस प्रकार जीते हैं मानो हमें कभी यहाँ से जाना ही नहीं ! भोगों को जोड़ो भले ही देह भोग न पावे।
कितने चातुर्य से खेलते हैं प्रभु से; आप हमारा "अमुक कार्य" कर दें तो हम आपके "दर्शन/परिक्रमा/भोग" को आवेंगे। मुस्करा देते हैं वे ! बालक भरमा रहा है पिता को ! नादान बालक ! पर है तो अपना ही ! चल ऐसे ही सही तेरी प्रसन्नता के लिये !
काम होने पर तुम्हें याद करूँगा, आभार प्रकट करूँगा ! जबकि लौकिक जीवन में कार्य से पूर्व देना होता है; टिकट के पैसे देकर बस/ट्रेन/फ़्लाईट में चढ़ना होता है वह भी कई-कई दिन पहले से; यदि "रिजर्व" चाहिये तो ! सभी जानते हैं कि कार्यालयों में एक-एक "फ़ाईल" तब आगे बढ़ती है जब उसमें "एडवांस" का पहिया लग जावे और तब भी कोई गारंटी नहीं कि वह किसी "टेबिल" पर अटकेगी नहीं। लगातार निगाह रखनी होती है और जेब ढीली करते रहनी होती है। अब कहाँ पहुँची अब कहाँ पहुँची। तब भी आशा है, विश्वास नहीं कि कार्य सफ़ल होगा।
अदभुत चरित्र है हमारा ! कथनी और करनी का अंतर हमने कब पाटना चाहा?
अपने वस्त्र लेते समय आती है कभी ठाकुर की याद ! भोजन करते समय आती है? छुपकर पाप करते समय स्मरण रहता है कि "वे" देख रहे हैं ! सुबह घर से निकलते समय और रात्रि को घर लौटते हुए "अपने लाला" से भेंटने की याद रहती है ! किसी दीन को देखकर होता है दीनदयाल का स्मरण ! धन-बल वा शक्ति-बल का प्रयोग किसी अशक्त पर करते समय स्मरण रहता है न्याय ! है प्रेम वास्तविक संतों से ! क्या उन्हें देखकर नेत्रों में अश्रु छलछला उठते हैं ! क्या संग और सत्संग का अंतर स्पष्ट हो गया है?
हमें देने हैं उत्तर स्वयं को ही। अपनी काँपी हमें ही जाँचनी होगी किन्तु पूरी ईमानदारी से । दिख जायेगी हमारी क्षमता ! ज्ञात हो जायेगा कि तैयारी कैसी है? और जब अपनी तैयारी पूरी हो तो मुस्कराते हुए सच्चे ह्रदय से कहना प्रभु से ! हाँ, अब मैं होना चाहता हूँ तुम्हारा ! लो परीक्षा ! और संभवत: कहना भी न पड़े, अशरणशरण हो जावें स्वयं ही प्रकट !
निहाल हो जायेंगे वे ! भर लेंगे अंक में ! अब तेरी कोई परीक्षा नहीं, कोई प्रतिक्षा नहीं ! तू मेरा हुआ ! तू मुझसे विलग था ही कब?
माँग, क्या चाहिये?
अब माँग कहाँ? फ़िर भी आपने कहा तो अवश्य माँगूगा; देंगे तो !
सब तेरा ही ! तू कहे तो त्रैलोक्य का राज्य दूँ ....
सौजन्य: श्री राधा शरण दास 

R.S. Das's "self test"

राधा शरण दास
आज कुछ भिन्न चिन्तन। "सेल्फ़-टेस्ट"। आज तौलते हैं स्वयं की "भक्ति" को !
शब्दों के भावों से आनुभूतिक परिचय न होते हुए भी हम उनके साथ खेलते हैं; सबको भरमाने के किये, भक्त और ज्ञानी का अघोषित तमगा पाने के लिये। ऐसी विरह-वेदना को दर्शाते हैं कि मानो प्राण अब निकले, अब निकले। एक अदृश्य चाह; मान की, प्रतिष्ठा की। कपट स्वयं से। कपट श्रीहरि से। कपट सभी प्राणियों में उपस्थित वासुदेव से।
हम प्रभु की प्रार्थना क्यों करते हैं? क्यों उनसे मिलन की आकांक्षा है? मिलने पर क्या देंगे उन्हें? अथवा माँगेगें कुछ, अपने स्वभाव से विवश ! और माँगेगें क्या? विचार करना।
कल्पना करें कि प्रभु प्रगट हो गये ! मुस्कराते हुए बोले कि अब तक जिसने माँगा, सुख ही माँगा। अब सुख का भंडार समाप्तप्राय: है और दु:ख का भंडार खोल दिया गया है। अब जो मेरे पास आवेगा, मुझे स्मरण करेगा; उसे दु:ख ही मिलेगा और अब तक जो सुख उसके पास है, वह भी वापिस ले लिया जावेगा। बहुत दे चुका मैं ! अब तुम मेरे अपने क्या मुझे वह वापिस करने को तैयार हो? क्या दु:खों को भी मेरी कृपा समझकर उतने ही प्रेम और सहजता से अपनाने को उत्सुक हो !
और दास अन्यथा नहीं कहता कि "ऐसे कृपालु प्रभु" से सर्वप्रथम हम ही पीछा छुड़ाना चाहेंगे। जो भूल से उनके पास गया, वह कान पकड़कर क्षमा-प्रार्थना करेगा कि प्रभु ! भूल हुयी। छोटी भूल की इतनी बड़ी सजा न दो ! जो है मेरे पास, वह न बढ़े तो कोई बात नहीं, नष्ट न हो। बड़ा परिश्रम किया है। इस बार क्षमा। पुन: भूल हो तो जो इच्छा, दीजियेगा दन्ड।
"तत्सुख-सुखित्वा" उदधृत करने में, कहने में, प्रवचन देने में बड़ा आदर्श शब्द किन्तु हमारे आचरण में तो "ममसुख-सुखित्वा" ही। कोई दे, बस दे ! हम तो प्रेम का भी व्यापार करने में नहीं हिचकते। हमने अमुक से बहुत प्रेम किया किन्तु उसने उसका मूल्य न समझा वा बदले में प्रेम दिया ही नहीं ! जहाँ शीघ्र ही इच्छा-पूर्ति की आस बंधी; हमने "देवता" बदल लिये ! कलियुग में तो "ये" ही शीघ्र मनोकामना की पूर्ति करते हैं ! बस, ज्ञात हो जाये कि कहीं बँट रहा है, चाहे देने वाला कोई हो, कैसा हो ! अथवा छीनना ही क्यों न पड़े? हमारा ह्रदय कितना उदार ! तेरा क्या, मेरा क्या? सब उन्हीं का दिया हुआ तो जो तेरा वो मेरा ! और मेरा तो मेरा है ही ! तर्क-शक्ति और बुद्धि का प्रयोग येन-केन-प्रकारेण कुछ और अर्जित करने और सुरक्षित रखने में ही। हम जीवन इस प्रकार जीते हैं मानो हमें कभी यहाँ से जाना ही नहीं ! भोगों को जोड़ो भले ही देह भोग न पावे।
कितने चातुर्य से खेलते हैं प्रभु से; आप हमारा "अमुक कार्य" कर दें तो हम आपके "दर्शन/परिक्रमा/भोग" को आवेंगे। मुस्करा देते हैं वे ! बालक भरमा रहा है पिता को ! नादान बालक ! पर है तो अपना ही ! चल ऐसे ही सही तेरी प्रसन्नता के लिये !
काम होने पर तुम्हें याद करूँगा, आभार प्रकट करूँगा ! जबकि लौकिक जीवन में कार्य से पूर्व देना होता है; टिकट के पैसे देकर बस/ट्रेन/फ़्लाईट में चढ़ना होता है वह भी कई-कई दिन पहले से; यदि "रिजर्व" चाहिये तो ! सभी जानते हैं कि कार्यालयों में एक-एक "फ़ाईल" तब आगे बढ़ती है जब उसमें "एडवांस" का पहिया लग जावे और तब भी कोई गारंटी नहीं कि वह किसी "टेबिल" पर अटकेगी नहीं। लगातार निगाह रखनी होती है और जेब ढीली करते रहनी होती है। अब कहाँ पहुँची अब कहाँ पहुँची। तब भी आशा है, विश्वास नहीं कि कार्य सफ़ल होगा।
अदभुत चरित्र है हमारा ! कथनी और करनी का अंतर हमने कब पाटना चाहा?
अपने वस्त्र लेते समय आती है कभी ठाकुर की याद ! भोजन करते समय आती है? छुपकर पाप करते समय स्मरण रहता है कि "वे" देख रहे हैं ! सुबह घर से निकलते समय और रात्रि को घर लौटते हुए "अपने लाला" से भेंटने की याद रहती है ! किसी दीन को देखकर होता है दीनदयाल का स्मरण ! धन-बल वा शक्ति-बल का प्रयोग किसी अशक्त पर करते समय स्मरण रहता है न्याय ! है प्रेम वास्तविक संतों से ! क्या उन्हें देखकर नेत्रों में अश्रु छलछला उठते हैं ! क्या संग और सत्संग का अंतर स्पष्ट हो गया है?
हमें देने हैं उत्तर स्वयं को ही। अपनी काँपी हमें ही जाँचनी होगी किन्तु पूरी ईमानदारी से । दिख जायेगी हमारी क्षमता ! ज्ञात हो जायेगा कि तैयारी कैसी है? और जब अपनी तैयारी पूरी हो तो मुस्कराते हुए सच्चे ह्रदय से कहना प्रभु से ! हाँ, अब मैं होना चाहता हूँ तुम्हारा ! लो परीक्षा ! और संभवत: कहना भी न पड़े, अशरणशरण हो जावें स्वयं ही प्रकट !
निहाल हो जायेंगे वे ! भर लेंगे अंक में ! अब तेरी कोई परीक्षा नहीं, कोई प्रतिक्षा नहीं ! तू मेरा हुआ ! तू मुझसे विलग था ही कब?
माँग, क्या चाहिये?
अब माँग कहाँ? फ़िर भी आपने कहा तो अवश्य माँगूगा; देंगे तो !
सब तेरा ही ! तू कहे तो त्रैलोक्य का राज्य दूँ ....

Saturday, October 10, 2015

Values

एक बेटा अपने वृद्ध पिता को रात्रि भोज के लिए एक अच्छे रेस्टॉरेंट में लेकर गया।
खाने के दौरान वृद्ध और कमजोर पिता ने कई बार भोजन अपने कपड़ों पर गिराया।
रेस्टॉरेंट में बैठे दुसरे खाना खा रहे लोग वृद्ध को घृणा की नजरों से देख रहे थे लेकिन वृद्ध का बेटा शांत था।
खाने के बाद बिना किसी शर्म के बेटा, वृद्ध को वॉश रूम ले गया। उसके कपड़े साफ़ किये, उसका चेहरा साफ़ किया, उसके बालों में कंघी की, उसे चश्मा पहनाया और फिर बाहर लाया।
सभी लोग खामोशी से उन्हें ही देख रहे थे।
बेटे ने बिल पे किया और वृद्ध के साथ बाहर जाने लगा। तभी डिनर कर रहे एक अन्य वृद्ध ने बेटे को आवाज दी और उससे पूछा---" क्या तुम्हे नहीं लगता कि यहाँ अपने पीछे तुम कुछ छोड़ कर जा रहे हो ?? "
बेटे ने जवाब दिया---" नहीं सर, मैं कुछ भी छोड़ कर नहीं जा रहा। "
वृद्ध ने कहा---" बेटे, तुम यहाँ छोड़ कर जा रहे हो, प्रत्येक पुत्र के लिए एक शिक्षा (सबक) और प्रत्येक पिता के लिए उम्मीद (आशा)। "

शिवमहिम्नस्तोत्रम्‌

वक्रतुंड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ,
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्व कार्येशु सर्वदा.... 

Meaning:

The Lord with the curved trunk and a mighty body, who has the luster of a million suns, I pray to thee Oh Lord, to remove the obstacles from all the actions I intend to perform. 

||
ॐ गं गणपतये नमो नमः ||

॥ ॐ नमः शिवाय॥
॥ अथ श्री शिवमहिम्नस्तोत्रम्‌॥
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः ।
अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्‌
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः॥ १॥
अतीतः पंथानं तव च महिमा वाङ्मनसयोः
अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः॥ २॥
मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः
तव ब्रह्मन्‌ किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम्‌।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन्‌ पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता॥ ३॥
तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्‌
त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु।
अभव्यानामस्मिन्‌ वरद रमणीयामरमणीं
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः॥ ४॥
किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च।
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः
कुतर्कोऽयं कांश्चित्‌ मुखरयति मोहाय जगतः॥ ५॥
अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां
अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति।
अनीशो वा कुर्याद्‌ भुवनजनने कः परिकरो
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे॥ ६॥
त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥ ७॥
महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्‌।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां
न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति॥ ८॥
ध्रुवं कश्चित्‌ सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं
परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये।
समस्तेऽप्येतस्मिन्‌ पुरमथन तैर्विस्मित इव
स्तुवन्‌ जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता॥ ९॥
तवैश्वर्यं यत्नाद्‌ यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः
परिच्छेतुं यातावनलमनलस्कन्धवपुषः।
ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत्‌
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति॥ १०॥
अयत्नादासाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं
दशास्यो यद्बाहूनभृत रणकण्डू-परवशान्‌।
शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेः
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम्‌॥ ११॥
अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं
बलात्‌ कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः।
अलभ्या पातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद्‌ ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः॥ १२॥
यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं
अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः।
न तच्चित्रं तस्मिन्‌ वरिवसितरि त्वच्चरणयोः
न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः॥ १३॥
अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा
विधेयस्याऽऽसीद्‌ यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय- भङ्ग- व्यसनिनः॥ १४॥
असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्‌
स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः॥ १५॥
मही पादाघाताद्‌ व्रजति सहसा संशयपदं
पदं विष्णोर्भ्राम्यद्‌ भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह- गणम्‌।
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता॥ १६॥
वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते।
जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति
अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः॥ १७॥
रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो
रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर-विधिः
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः॥ १८॥
हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः
यदेकोने तस्मिन्‌ निजमुदहरन्नेत्रकमलम्‌।
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम्‌॥ १९॥
क्रतौ सुप्ते जाग्रत्‌ त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवं
श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः॥ २०॥
क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां
ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः।
क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनः
ध्रुवं कर्तुः श्रद्धा-विधुरमभिचाराय हि मखाः॥ २१॥
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं
गतं रोहिद्‌ भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः॥ २२॥
स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्‌
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात्‌
अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः॥ २३॥
श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः
चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः।
अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं
तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि॥ २४॥
मनः प्रत्यक्चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः
प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्सङ्गति-दृशः।
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये
दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत्‌ किल भवान्‌॥ २५॥
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः
त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत्‌ त्वं न भवसि॥ २६॥
त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान्‌
अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत्‌ तीर्णविकृति।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः
समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्‌॥ २७॥
भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान्‌
तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्‌।
अमुष्मिन्‌ प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि
प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते॥ २८॥
नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः
नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः॥ २९॥
बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः
प्रबल-तमसे तत्‌ संहारे हराय नमो नमः।
जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः॥ ३०॥
कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं क्व च
तव गुण-सीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्‌
वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम्‌॥ ३१॥
असित-गिरि-समं स्यात्‌ कज्जलं सिन्धु-पात्रे
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति॥ ३२॥
असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः
ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य।
सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः
रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार॥ ३३॥
अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्‌ पठति
परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान्‌ यः।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र
प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान्‌ कीर्तिमांश्च॥ ३४॥
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः।
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्‌॥ ३५॥
दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः।
महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्‌॥ ३६॥
कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः
शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः।
स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्‌
स्तवनमिदमकार्षीद्‌ दिव्य-दिव्यं महिम्नः॥ ३७॥
सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुं
पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्य-चेताः।
व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानः
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम्‌॥ ३८॥
आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम्‌।
अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम्‌॥ ३९॥
इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्कर-पादयोः।
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः॥ ४०॥
तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर।
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः॥ ४१॥
एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः।
सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते॥ ४२॥
श्री पुष्पदन्त-मुख-पङ्कज-निर्गतेन
स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण।
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः॥ ४३॥
॥ इति श्री पुष्पदन्त विरचितं शिवमहिम्नः स्तोत्रं समाप्तम्‌॥