Saturday, October 17, 2015

"सेल्फ़-टेस्ट"

आज कुछ भिन्न चिन्तन। "सेल्फ़-टेस्ट"। आज तौलते हैं स्वयं की "भक्ति" को !

शब्दों के भावों से आनुभूतिक परिचय न होते हुए भी हम उनके साथ खेलते हैं; सबको भरमाने के किये, भक्त और ज्ञानी का अघोषित तमगा पाने के लिये। ऐसी विरह-वेदना को दर्शाते हैं कि मानो प्राण अब निकले, अब निकले। एक अदृश्य चाह; मान की, प्रतिष्ठा की। कपट स्वयं से। कपट श्रीहरि से। कपट सभी प्राणियों में उपस्थित वासुदेव से।

हम प्रभु की प्रार्थना क्यों करते हैं? क्यों उनसे मिलन की आकांक्षा है? मिलने पर क्या देंगे उन्हें? अथवा माँगेगें कुछ, अपने स्वभाव से विवश ! और माँगेगें क्या? विचार करना।
कल्पना करें कि प्रभु प्रगट हो गये ! मुस्कराते हुए बोले कि अब तक जिसने माँगा, सुख ही माँगा। अब सुख का भंडार समाप्तप्राय: है और दु:ख का भंडार खोल दिया गया है। अब जो मेरे पास आवेगा, मुझे स्मरण करेगा; उसे दु:ख ही मिलेगा और अब तक जो सुख उसके पास है, वह भी वापिस ले लिया जावेगा। बहुत दे चुका मैं ! अब तुम मेरे अपने क्या मुझे वह वापिस करने को तैयार हो? क्या दु:खों को भी मेरी कृपा समझकर उतने ही प्रेम और सहजता से अपनाने को उत्सुक हो !
और दास अन्यथा नहीं कहता कि "ऐसे कृपालु प्रभु" से सर्वप्रथम हम ही पीछा छुड़ाना चाहेंगे। जो भूल से उनके पास गया, वह कान पकड़कर क्षमा-प्रार्थना करेगा कि प्रभु ! भूल हुयी। छोटी भूल की इतनी बड़ी सजा न दो ! जो है मेरे पास, वह न बढ़े तो कोई बात नहीं, नष्ट न हो। बड़ा परिश्रम किया है। इस बार क्षमा। पुन: भूल हो तो जो इच्छा, दीजियेगा दन्ड।
"तत्सुख-सुखित्वा" उदधृत करने में, कहने में, प्रवचन देने में बड़ा आदर्श शब्द किन्तु हमारे आचरण में तो "ममसुख-सुखित्वा" ही। कोई दे, बस दे ! हम तो प्रेम का भी व्यापार करने में नहीं हिचकते। हमने अमुक से बहुत प्रेम किया किन्तु उसने उसका मूल्य न समझा वा बदले में प्रेम दिया ही नहीं ! जहाँ शीघ्र ही इच्छा-पूर्ति की आस बंधी; हमने "देवता" बदल लिये ! कलियुग में तो "ये" ही शीघ्र मनोकामना की पूर्ति करते हैं ! बस, ज्ञात हो जाये कि कहीं बँट रहा है, चाहे देने वाला कोई हो, कैसा हो ! अथवा छीनना ही क्यों न पड़े? हमारा ह्रदय कितना उदार ! तेरा क्या, मेरा क्या? सब उन्हीं का दिया हुआ तो जो तेरा वो मेरा ! और मेरा तो मेरा है ही ! तर्क-शक्ति और बुद्धि का प्रयोग येन-केन-प्रकारेण कुछ और अर्जित करने और सुरक्षित रखने में ही। हम जीवन इस प्रकार जीते हैं मानो हमें कभी यहाँ से जाना ही नहीं ! भोगों को जोड़ो भले ही देह भोग न पावे।
कितने चातुर्य से खेलते हैं प्रभु से; आप हमारा "अमुक कार्य" कर दें तो हम आपके "दर्शन/परिक्रमा/भोग" को आवेंगे। मुस्करा देते हैं वे ! बालक भरमा रहा है पिता को ! नादान बालक ! पर है तो अपना ही ! चल ऐसे ही सही तेरी प्रसन्नता के लिये !
काम होने पर तुम्हें याद करूँगा, आभार प्रकट करूँगा ! जबकि लौकिक जीवन में कार्य से पूर्व देना होता है; टिकट के पैसे देकर बस/ट्रेन/फ़्लाईट में चढ़ना होता है वह भी कई-कई दिन पहले से; यदि "रिजर्व" चाहिये तो ! सभी जानते हैं कि कार्यालयों में एक-एक "फ़ाईल" तब आगे बढ़ती है जब उसमें "एडवांस" का पहिया लग जावे और तब भी कोई गारंटी नहीं कि वह किसी "टेबिल" पर अटकेगी नहीं। लगातार निगाह रखनी होती है और जेब ढीली करते रहनी होती है। अब कहाँ पहुँची अब कहाँ पहुँची। तब भी आशा है, विश्वास नहीं कि कार्य सफ़ल होगा।
अदभुत चरित्र है हमारा ! कथनी और करनी का अंतर हमने कब पाटना चाहा?
अपने वस्त्र लेते समय आती है कभी ठाकुर की याद ! भोजन करते समय आती है? छुपकर पाप करते समय स्मरण रहता है कि "वे" देख रहे हैं ! सुबह घर से निकलते समय और रात्रि को घर लौटते हुए "अपने लाला" से भेंटने की याद रहती है ! किसी दीन को देखकर होता है दीनदयाल का स्मरण ! धन-बल वा शक्ति-बल का प्रयोग किसी अशक्त पर करते समय स्मरण रहता है न्याय ! है प्रेम वास्तविक संतों से ! क्या उन्हें देखकर नेत्रों में अश्रु छलछला उठते हैं ! क्या संग और सत्संग का अंतर स्पष्ट हो गया है?
हमें देने हैं उत्तर स्वयं को ही। अपनी काँपी हमें ही जाँचनी होगी किन्तु पूरी ईमानदारी से । दिख जायेगी हमारी क्षमता ! ज्ञात हो जायेगा कि तैयारी कैसी है? और जब अपनी तैयारी पूरी हो तो मुस्कराते हुए सच्चे ह्रदय से कहना प्रभु से ! हाँ, अब मैं होना चाहता हूँ तुम्हारा ! लो परीक्षा ! और संभवत: कहना भी न पड़े, अशरणशरण हो जावें स्वयं ही प्रकट !
निहाल हो जायेंगे वे ! भर लेंगे अंक में ! अब तेरी कोई परीक्षा नहीं, कोई प्रतिक्षा नहीं ! तू मेरा हुआ ! तू मुझसे विलग था ही कब?
माँग, क्या चाहिये?
अब माँग कहाँ? फ़िर भी आपने कहा तो अवश्य माँगूगा; देंगे तो !
सब तेरा ही ! तू कहे तो त्रैलोक्य का राज्य दूँ ....
सौजन्य: श्री राधा शरण दास 

3 comments:

  1. बहुत सुंदर एवं सटीक शब्द मे रचना लिखी आपने !
    बहुत बहुत आभार आपका एवं आप की लेखनी को !

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