कुछ ऐसा ही मंज़र था
आसमान उसकी आखों की तरह ऐसा ही नीला था
जैसा आज है
सांज भी ऐसी ही सुरमई थी
सुहाने ख्वाबों की तरह
गीली रेत की खुशबु भी ऐसी ही थी
जिस रेत पर कदम रख सारी सुगंध रूह में समेटी थी हमने
उस वक़्त हाथों में हाथ डाले
साहील पे सुस्त कदमो से चलते चलते
उसने कहा था मुझसे
सुनो
तुमने मुझे जो ये लम्हात अता कीये हैं
यकीं मानो
मेरी ज़िंदगी इनसे खाली थी
जो खाली जगहें तुमने मेरी हस्ती को पुर की हैं
तुम्हारी शुक्रगुज़ार हुँ
तुम न होते तो हंमेशा अधूरी रह जातीं
तुमसे और क्या कहूँ
मेरी तकमील हो गई है
ऐसे मुक्कमल तौर पर की महसूस होता है मुझे
अब तुम्हारी जरुरत नहीं रही
और चली गई वोह
जैसे समंदर की मौज कोई साहील को छूके मुड़ जाये
आज भी वोही शाम वोही मंज़र है और तन्हा मैं हुं ....
(तकमील-completion,मुक्कमल-perfect, complete)
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