Sunday, April 29, 2018

शाम

कुछ ऐसा ही मंज़र था
आसमान उसकी आखों की तरह ऐसा ही नीला था
जैसा आज है
सांज भी ऐसी ही सुरमई थी
सुहाने ख्वाबों की तरह
गीली रेत की खुशबु भी ऐसी ही थी
जिस रेत पर कदम रख सारी सुगंध रूह में समेटी थी हमने
उस वक़्त हाथों में हाथ डाले
साहील पे सुस्त कदमो से चलते चलते
उसने कहा था मुझसे
सुनो
तुमने मुझे जो ये लम्हात अता कीये हैं
यकीं मानो
मेरी ज़िंदगी इनसे खाली थी
जो खाली जगहें तुमने मेरी हस्ती को पुर की हैं
तुम्हारी शुक्रगुज़ार हुँ
तुम न होते तो हंमेशा अधूरी रह जातीं
तुमसे और क्या कहूँ
मेरी तकमील हो गई है
ऐसे मुक्कमल तौर पर की महसूस होता है मुझे
अब तुम्हारी जरुरत नहीं रही
और चली गई वोह
जैसे समंदर की मौज कोई साहील को छूके मुड़ जाये
आज भी वोही शाम वोही मंज़र है और तन्हा मैं हुं ....

(तकमील-completion,मुक्कमल-perfect, complete)

No comments:

Post a Comment