छोटा सा बच्चा पैदा होता है; पहला ही काम तो करता है कि चीख कर रोता है, चिल्लाता है। धर्मगुरुओं ने इसका भी शोषण कर लिया। उन्होंने कहा, रोते हुए ही तुम पैदा होते हो। जन्म ही रुदन है, दुख है। जन्म की शुरुआत दुख से होती है।
वे बिल्कुल ही गलत बात कह रहे हैं। बच्चा दुख के कारण नहीं रोता। और बच्चे के रोने और चिल्लाने के पीछे जीवन की अभीप्सा छिपी है, दुख नहीं।
बच्चा चिल्लाता है; उसके माध्यम से उसका फेफड़ा, गला साफ होता है, और श्वास की धारा शुरू होती है।
चिकित्सक जानते हैं कि अगर बच्चा तीन मिनट तक न रोए-चिल्लाए नहीं तो बचाना मुश्किल है; मर जाएगा। क्योंकि अब तक तो मां की श्वास से जीता था; अब अपनी श्वास लेनी है।
तो वह जो चीखना है, रोना है, चिल्लाना है, वह सिर्फ गले का साफ करना है। उसमें न तो कोई पीड़ा है; अगर हम बच्चे को जान सकें तो उसके भीतर छिपा अहोभाव है।
उसने पहली स्वतंत्रता की श्वास ली। वह पहली दफा अपने लिए चिल्लाया है, आवाज दी है, पुकार दी है। वहां दुख जरा भी नहीं है। वहां पीड़ा जरा भी नहीं है। हां, तुम व्याख्या कर ले सकते हो। और धर्मगुरु उसको पकड़ लेता है कि देखो रोने से...।
तुम्हें पता होना चाहिए कि रोने का अनिवार्य संबंध दुख से नहीं है। कभी आदमी सुख में भी रोता है। कभी तो महासुख में ऐसे आंसू बहते हैं जैसे दुख में कभी भी नहीं बहे। रोने का कोई संबंध दुख से नहीं है अनिवार्य। दुख में भी आदमी रोता है; सुख में भी आदमी रोता है।
महासुख और आनंद में भी लोगों को रोते हुए पाया गया है। आंसू तो केवल, जब भी तुम्हारे भीतर कोई चीज लबालब हो जाती है, इतनी हो जाती है कि तुम सम्हाल नहीं पाते, तभी बहते हैं। वह बच्चे की पहली पुकार है, जीवन की पुकार है। वह जीवन का पहला कदम है।
लेकिन धर्मगुरु ने उसकी भी निंदा कर दी। धर्मगुरु ने कुछ छोड़ा ही नहीं, उसने हर चीज की निंदा कर दी। जन्म से लेकर मृत्यु तक उसने हर चीज को बुरा बता दिया है।
और तुम्हें इस बुराई से इतना आक्रांत कर दिया है, यह व्याख्या तुम्हारे मन में भी इतनी गहरी बैठ गई है। और व्याख्या के परिणाम आने शुरू हो जाते हैं।
फ्रांस में एक बहुत बड़ा चिकित्सक है जिसने एक अनूठी बात खोजी है। वह पूरी मनुष्यता को जैसे भूल ही गई व्याख्या के कारण। बच्चे पैदा होते हैं; तो हम सोचते हैं कि मां को बड़ी पीड़ा होती है, प्रसव-पीड़ा होती है।
क्योंकि सारी दुनिया में करीब-करीब, कम से कम सभ्य लोगों में तो पीड़ा होती ही है। और असभ्यों की तो हम फिक्र ही नहीं करते। आदिम जातियों में पीड़ा नहीं होती।
बच्चा पैदा होता है; मां काम करती रहती है खेत में, बच्चा पैदा हो जाता है, टोकरी में बच्चे को रख कर वह फिर काम में लग जाती है। कोई प्रसव-पीड़ा नहीं होती। लेकिन सारी सभ्य जातियों में होती है। सभ्यता से प्रसव-पीड़ा का क्या संबंध होगा?
यह व्याख्या है, जो गहरे बैठ गई। प्रसव पीड़ा है, यह ख्याल, यह विचार गहरे बैठ गया।
फ्रांस में एक चिकित्सक ने स्त्रियों को सम्मोहित किया प्रसव के पहले और उन्हें यह धारणा दी कि प्रसव बड़ा आनंदपूर्ण है। होश में आ गईं, पर यह धारणा उसने सम्मोहन के द्वारा उनमें गहरे बिठा दी कि प्रसव बड़ा समाधिपूर्ण है; समाधिस्थ आनंद, आखिरी आनंद प्रसव में होगा।
होना भी यही चाहिए, क्योंकि बड़ी से बड़ी घटना घट रही है; एक नये जीवन का पदार्पण हो रहा है। यह दुख में कैसे होगा?
और मां बड़े से बड़ा कृत्य कर रही है इस जगत में। कोई चित्रकार कितना ही बड़ा चित्र बना ले, कोई मूर्तिकार कितनी ही बड़ी मूर्ति गढ़ ले, कोई संगीतज्ञ कितने ही बड़े संगीत को जन्म दे दे; फिर भी एक साधारण स्त्री के सृजन का मुकाबला नहीं कर सकता।
क्योंकि सब सृजन..संगीत का, कि मूर्ति का, कि चित्र का, कि काव्य का..मुर्दा है। एक साधारण सी स्त्री की भी सृजन की क्षमता, बड़े से बड़े चित्रकार, मूर्तिकार, स्रष्टा में नहीं है।
एक जीवंत व्यक्ति को जन्म दे रही है। यह तो अहोभाव का क्षण होना चाहिए; यह तो बड़े उत्सव का क्षण होना चाहिए। यह दुख का कैसे हो गया? धर्मगुरु ने इतनी निंदा की है कि यह गहरे बैठ गया।
तो इस चिकित्सक ने सम्मोहित किया स्त्रियों को और फिर उनको बच्चे हुए। और वे इतनी आनंदित हुईं। दुख की तो बात ही अलग रही, प्रसव देना एक आनंद की घटना हो गई; ऐसे आनंद की घटना कि उन स्त्रियों ने कहा कि फिर दुबारा ऐसा आनंद नहीं जाना।
उसने कोई लाखों प्रयोग करवाए। और अब तो वह सम्मोहित भी नहीं करता। अब तो वह कहता है, देख लो, इतनी स्त्रियों को आनंदपूर्ण प्रसव हो रहा है! उसने चित्र प्रकाशित किए हैं, फिल्में बनाई हैं।
उन स्त्रियों के चेहरे पर वही भाव है जो कभी बुद्ध के चेहरे पर दिखाई पड़ता है, या कभी मीरा के चेहरे पर दिखाई पड़ता है। वही नृत्य, वही आनंद।
और कुछ भी खास घटना नहीं घट रही है, बच्चे का जन्म हो रहा है। न चीख है, न पुकार है; न रोना है, न आंसू हैं। बिल्कुल उलटी स्थिति है। और उसकी बात सारी दुनिया में प्रचारित हो रही है। रूस में तो उन्होंने हर अस्पताल में प्रयोग शुरू कर दिए। क्योंकि स्त्री के लिए अकारण कष्ट दे रहे हो। जो घटना महासुख बन सकती थी उसको हमने दुख बना दिया।
जल्दी मत करना। जहां भी तुम दुख पाओ, समझना कि कहीं कुछ भूल हो रही है। क्योंकि गहरे में तो सुख ही होगा; क्योंकि गहरे में परमात्मा है। हर घटना के पीछे छिपा है वही।
तो ऊपर-ऊपर से निर्णय मत ले लेना; भीतर जाना। जीवन के अतिरिक्त और कोई परमात्मा नहीं है।
और जीवन की निंदा जिसने की, उसके मंदिर के द्वार सदा के लिए बंद हो गए। फिर वह भटके काशी, काबा, कैलाश, उसके मंदिर के द्वार बंद हो गए।
फिर वह करे सत्संग, सुने रामायण, गीता, वेद, करे पाठ, कुछ भी न होगा। जीवन पास था; वह शब्दों में खो गया। जीवन यहां था; वह वहां दूर भटकने लगा।
ताओ उपनिषद--प्रवचन--114
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