Sunday, September 20, 2020

उर्दू 1

अकसर लोग विरोध  के लिए “ख़िलाफ़त” लफ्ज़ का इस्तेमाल करते हैं , जो की मुनासिब  (उचित) नहीं है।ख़िलाफ़त का मतलब होता है : इस्लामी शासन व्यवस्था, जिसका प्रमुख ख़लीफ़ा कहलाता है। इसीलिए जब “विरोध” के लिए “ख़िलाफ़त” शब्द का इस्तेमाल किया जाता है तो उसका “अनर्थ” भी निकल सकता है। जैसे कोई ये कहे या लिखे कि : मैंने ऐसा उनकी “ख़िलाफ़त” में किया।

उर्दू में “विरोध” के “मुख़ालिफ़त” शब्द है और “विरोधी” के लिए “मुख़ालिफ़”. उदहारण : मैं उसके ख़िलाफ़ (विरोध में) हूँ। मैं उसका “मुख़ालिफ़” (विरोधी) हूँ या फिर मैं उसके इस प्रस्ताव की मुख़ालिफ़त (विरोध) करता हूँ।

इसी बात पर “सादिक़ हुसैन” का ये शेर सुनिये :

“तुंदी-ए-बाद-ए-मुख़ालिफ़ से न घबरा ऐ उक़ाब

ये तो चलती है तुझे ऊँचा उड़ाने के लिए”

 

“बाज़ी” और “बाजी” का फ़र्क़

“मेरा दिल था अकेला

तूने खेल ऐसा खेला

तेरी याद मे जागूं रात भर

बाज़ीगर ओ बाज़ीगर

तू है बड़ा जादूगर

बाज़ीगर ओ बाज़ीगर

तू है बड़ा जादूगर…”

बाज़ीगर (1993) फ़िल्म का ये गाना तो सुना ही होगा आपने और “बाज़ीगर” का मतलब भी जानते होंगे : तमाशा करने वाला, धोका देने वाला, रिस्क लेने वाला, जुआरी या अंग्रेजी में कहें तो juggler या gambler.

लोग इसे “बाजीगर” लिखते और बोलते देखे गए हैं। जैसे : “आज का दिन : जब हार कर भी ‘बाजीगर’ बनीं भारतीय महिला क्रिकेट टीम” ,”महाराष्ट्र की राजनीति के बाजीगर शरद पवार लॉकडाउन में अपनी बेटी सुप्रिया सुले को भी शतरंज में दे रहे हैं मात”।

इन दोनों वाक्यों में ‘बाजीगर’ शब्द का इस्तेमाल उसी सेंस में हुआ है। अलबत्ता ज के नीचे “नुक़्ता” न लगे होने की वजह से confusion का इमकान (संभावना) रहता है क्योंकि नुक़्ता न लगे होने की वजह से इसे बाजीगर पढ़ा जायेगा जिसका कोई ‘सेंस नहीं बनता’।

वो इसलिए क्योंकि उर्दू में “बाजी” का मतलब होता है बड़ी बहन और “बाजीगर” जैसा कोई शब्द नहीं है जिसका मतलब भी “बाज़ीगर” वाला हो।  कहने का मतलब ये है कि “बाज़ी” और “बाजी” दो अलक्षग अलग शब्द हैं।

 

इसी तरह “बाज़” और “बाज” भी अलग अलग शब्द हैं।  “बाज़” का मतलब eagle या hawk जबकि “बाज” का मतलब है कर, चुंगी या tax, duty, cess.

वैसे “बाज़” का एक मतलब “कुछ”, “चंद”, “कोई-कोई”,”कभी” या few, some भी होता है। जैसे उर्दू में लिखते/बोलते हैं : “बाज़ दफ़ा/बाज़ औक़ात ऐसा होता है” मतलब कई बार या कभी कभी ऐसा होता है या फिर “बाज़ हल्क़ों (कुछ क्षेत्रों) के नताएज (नतीजा का बहुवचन) से ऐसा मालूम होता है कि…”।

लेकिन उर्दू में दोनों का “हिज्जे” (spelling) अलग-अलग होता है। चिड़या मतलब वाले “बाज़” का हिज्जे “باز” होता है जबकि कुछ मतलब वाले बाज़ का हिज्जे “بعض” होता है। “बाज़” के कुछ और meanings भी होते हैं लेकिन उस पर कभी और।

उर्दू तलफ़्फ़ुज़ की सुंदरता

तलफ़्फ़ुज़ किसी भी ज़ुबान का रस है जो कान में तो टपकता ही है, इमला की शक्ल में आंख से देखा भी जाता है। देखिये –

‘नाजुकी’ उसके लब की क्या कहिए’

ख़ुदाए-सुख़न ‘मीर’ का यह ला-ज़वाल मिसरा एक बिंदी की ग़ैर-मौजूदगी के सबब आंख में तीर की तरह चुभा और उसे लहू-लहू कर गया। ग़ुस्से के सबब दूसरी क़िरअत ज़रा बुलन्द आवाज़ में की गई तो ‘नाजुकी’ ने अपने ही कानों में सीसे जैसा कुछ घोल दिया।

आगे बढ़ते हैं। तसव्वुर के पर खोलिए।

आप ख़बरें देख और सुन रहे हैं। बे इंतिहा चुस्त और दीदा-ज़ेब लिबास में किसी माॅडल को किनारे रख देने की क़ुव्वत रखने वाली न्यूज़-एंकर आपके कानों से ज़्यादा आपकी आंखों को बांधे हुए है। अचानक उसकी मख़मली आवाज़ यह ज़ुल्म करती है –

‘खाड़ी देश के इस हवाई जहाज को एक्सप्रेस-वे पर उतरना पड़ा’।

आपके कानों को झटका लगता है। ऐसा लगता है कि यह ‘जहाज’ आपके ऊपर ही उतार दिया गया हो। पिछले सेकेन्ड तक का वो मनभावन चेहरा कितना बदसूरत हो गया है।

इस तरह के तजुर्बों से हम रोज़ गुज़रते हैं। बच्चा गिरे तो हम सब उसे उठाने भागते हैं, मगर जब कोई बड़ा गिरता है तो पहले हम हंसते हैं। फिर हम में से कोई जाकर उसे उठा लेता है। इसी तरह जब बच्चा ग़लत तलफ़्फ़ुज़ या उच्चारण से कोई लफ़्ज़ बोलता तो हम उसे तुतलाहट कहते हैं। हमें उस पर प्यार आता है। मगर जब कोई बड़ा ग़लत बोलता है तो हमें प्यार नहीं ग़ुस्सा आता है, झुंझलाहट होती है। यानी लफ़्ज़ का ग़लत तलफ़्फ़ुज़ एक बचकानी बात है जो सिर्फ़ बच्चों पर ही ज़ेब देती है। कोई भी ज़ुबान अपनी ख़ासियत रखती है। उर्दू ज़ुबान की सबसे बड़ी ख़ासियत इसकी मिठास और इसकी नर्मी है। जो किसी भी सुनने वाले को अपनी तरफ खींचती है। उर्दू ज़ुबान जैसे-जैसे क़रीब आती है, वैसे-वैसे शख़्सियत में नरमी, मिठास और कशिश आने लगती है।

कई नौजवान शायर और नस्र निगार हैरान किए हुए हैं। कमाल लिख रहे हैं। मगर कुछ एक को सुनिये तो अफ़सोस और हैरानी की दोनों कैफ़िय्यतें आपस में ऐसे जज़्ब होकर ज़ाहिर होती हैं कि बयान से बाहर की बात है। ऐसा महसूस होता है कि सामने एक बेइंतिहा ख़ूबसूरत इमारत ताश के पत्तों की तरह ढह रही है। एक तलफ़्फ़ुज़ की ख़ामी क्या ज़ुल्म कर देती है। अस्ल में हर लफ़्ज़ की एक शक्ल और एक आवाज़ होती है जो उस ज़बान के जानने वाले के शऊर और लाशऊर का हिस्सा होती है। जब इमला या तलफ़्फ़ुज़ उस तस्वीर को मजरूह करता है तो शऊर और लाशऊर के तार झनझना उठते हैं और महसूस होता है कि किसी लफ़्ज़ पर ज़ुल्म हुआ है। आंखों के सामने तेज़ी से भागती इस स्क्रीन ने एक बेकनार रचना संसार तो हमारी उंगलियों का ताबे कर दिया है। मगर ठहरने, सीखने और समझने का माद्दा भी ख़त्म कर दिया है। अब हम किसी से कुछ सीखने के ख़्वाहिश-मंद नहीं हैं। अब हमसे जो जल्दी से हो जाए वो ही करना हमें पसंद है, सीखना वो भी नहीं है। हमें एक वक़्त में बहुत सारे काम करने हैं, जैसे हमारे पास वक़्त ही नहीं है।

यही मुआमला उर्दू अदब के चाहने वालों मगर उर्दू जैसा अदब तख़लीक़ करने वालों का है। उन्हें उर्दू ज़बान ख़ासतौर पर उर्दू रस्मुल-ख़त से कोई मतलब नहीं है। उन्हें बस उर्दू अदब आ जाए। फिर चाहे गजल हो, नज्म हो, गालिब हो, जौक हो, फिराक हो, फैज हो, मजाज हो, कैफी आजमी हो, फराज हो, जफर इकबाल हो, अस्मत चुगताई हो, कुरतुल-आइन हो, सादत हसन हो, गबन हो, मुगले-आजम हो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। मगर शख़्स को शख़्सियत बनाना है और अदब में कुछ कर दिखाना है तो ज़ुबान के पांव दाबने होंगे। अपने शीन-क़ाफ़ को अर्जुन और एक्लव्य के तीरों की तरह हमेशा अचूक रखना होगा और यह मुश्किल काम सिर्फ़ ज़ुबान के क़रीब जाने से होगा। ज़ुबान मज़बूत हो गयी तो अदब ख़ुद अपने दरवाज़े खोल देगा। नहीं तो ज़ुबान भी मायूस रहेगी और फ़राज़ का यह शेर भी-

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं

Tuesday, September 8, 2020

महागुरु है मेरा कन्हैया...

कभी सूरदास ने एक स्वप्न देखा था कि रुक्मिणी और राधिका मिली हैं और एक दूजे पर निछावर हुई जा रही हैं।
      सोचता हूँ, कैसा होगा वह क्षण जब दोनों ठकुरानियाँ मिली होंगी। दोनों ने प्रेम किया था। एक ने बालक कन्हैया से, दूसरे ने राजनीतिज्ञ कृष्ण से। एक को अपनी मनमोहक बातों के जाल में फँसा लेने वाला कन्हैया मिला था, और दूसरे को मिले थे सुदर्शन चक्र धारी, महायोद्धा कृष्ण।
      कृष्ण राधिका के बाल सखा थे, पर राधिका का दुर्भाग्य था कि उन्होंने कृष्ण को तात्कालिक विश्व की महाशक्ति बनते नहीं देखा। राधिका को न महाभारत के कुचक्र जाल को सुलझाते चतुर कृष्ण मिले, न पौंड्रक-शिशुपाल का वध करते बाहुबली कृष्ण मिले।
      रुक्मिणी कृष्ण की पत्नी थीं, महारानी थीं, पर उन्होंने कृष्ण की वह लीला नहीं देखी जिसके लिए विश्व कृष्ण को स्मरण रखता है। उन्होंने न माखन चोर को देखा, न गौ-चरवाहे को। उनके हिस्से में न बाँसुरी आयी, न माखन।
      कितनी अद्भुत लीला है, राधिका के लिए कृष्ण कन्हैया था, रुख्मिनी के लिए कन्हैया कृष्ण थे। पत्नी होने के बाद भी रुख्मिनी को कृष्ण उतने नहीं मिले कि वे उन्हें "तुम" कह पातीं। आप से तुम तक की इस यात्रा को पूरा कर लेना ही प्रेम का चरम पा लेना है। रुख्मिनी कभी यह यात्रा पूरी नहीं कर सकीं।
     राधिका की यात्रा प्रारम्भ ही 'तुम' से हुई थीं। उन्होंने प्रारम्भ ही "चरम" से किया था। शायद तभी उन्हें कृष्ण नहीं मिले।
     कितना अजीब है न! कृष्ण जिसे नहीं मिले, युगों युगों से आजतक उसी के हैं, और जिसे मिले उसे मिले ही नहीं।
     तभी कहता हूँ, कृष्ण को पाने का प्रयास मत कीजिये। पाने का प्रयास कीजियेगा तो कभी नहीं मिलेंगे। बस प्रेम कर के छोड़ दीजिए, जीवन भर साथ निभाएंगे कृष्ण। कृष्ण इस सृष्टि के सबसे अच्छे मित्र हैं। राधिका हों या सुदामा, कृष्ण ने मित्रता निभाई तो ऐसी निभाई कि इतिहास बन गया।
      राधा और रुक्मिणी जब मिली होंगी तो रुक्मिणी राधा के वस्त्रों में माखन की गंध ढूंढती होंगी, और राधा ने रुक्मिणी के आभूषणों में कृष्ण का बैभव तलाशा होगा। कौन जाने मिला भी या नहीं। सबकुछ कहाँ मिलता है मनुष्य को... कुछ न कुछ तो छूटता ही रहता है।
      जितनी चीज़ें कृष्ण से छूटीं उतनी तो किसी से नहीं छूटीं। कृष्ण से उनकी माँ छूटी, पिता छूटे, फिर जो नंद-यशोदा मिले वे भी छूटे। संगी-साथी छूटे। राधा छूटीं। गोकुल छूटा, फिर मथुरा छूटी। कृष्ण से जीवन भर कुछ न कुछ छूटता ही रहा। कृष्ण जीवन भर त्याग करते रहे। हमारी आज की पीढ़ी जो कुछ भी छूटने पर टूटने लगती है, उसे कृष्ण को गुरु बना लेना चाहिए। जो कृष्ण को समझ लेगा वह कभी अवसाद में नहीं जाएगा। कृष्ण आनंद के देवता है। कुछ छूटने पर भी कैसे खुश रहा जा सकता है, यह कृष्ण से अच्छा कोई सिखा ही नहीं सकता। महागुरु है मेरा कन्हैया...