तलफ़्फ़ुज़ किसी भी ज़ुबान का रस है जो कान में तो टपकता ही है, इमला की शक्ल में आंख से देखा भी जाता है। देखिये –
‘नाजुकी’ उसके लब की क्या कहिए’
ख़ुदाए-सुख़न ‘मीर’ का यह ला-ज़वाल मिसरा एक बिंदी की ग़ैर-मौजूदगी के सबब आंख में तीर की तरह चुभा और उसे लहू-लहू कर गया। ग़ुस्से के सबब दूसरी क़िरअत ज़रा बुलन्द आवाज़ में की गई तो ‘नाजुकी’ ने अपने ही कानों में सीसे जैसा कुछ घोल दिया।
आगे बढ़ते हैं। तसव्वुर के पर खोलिए।
आप ख़बरें देख और सुन रहे हैं। बे इंतिहा चुस्त और दीदा-ज़ेब लिबास में किसी माॅडल को किनारे रख देने की क़ुव्वत रखने वाली न्यूज़-एंकर आपके कानों से ज़्यादा आपकी आंखों को बांधे हुए है। अचानक उसकी मख़मली आवाज़ यह ज़ुल्म करती है –
‘खाड़ी देश के इस हवाई जहाज को एक्सप्रेस-वे पर उतरना पड़ा’।
आपके कानों को झटका लगता है। ऐसा लगता है कि यह ‘जहाज’ आपके ऊपर ही उतार दिया गया हो। पिछले सेकेन्ड तक का वो मनभावन चेहरा कितना बदसूरत हो गया है।
इस तरह के तजुर्बों से हम रोज़ गुज़रते हैं। बच्चा गिरे तो हम सब उसे उठाने भागते हैं, मगर जब कोई बड़ा गिरता है तो पहले हम हंसते हैं। फिर हम में से कोई जाकर उसे उठा लेता है। इसी तरह जब बच्चा ग़लत तलफ़्फ़ुज़ या उच्चारण से कोई लफ़्ज़ बोलता तो हम उसे तुतलाहट कहते हैं। हमें उस पर प्यार आता है। मगर जब कोई बड़ा ग़लत बोलता है तो हमें प्यार नहीं ग़ुस्सा आता है, झुंझलाहट होती है। यानी लफ़्ज़ का ग़लत तलफ़्फ़ुज़ एक बचकानी बात है जो सिर्फ़ बच्चों पर ही ज़ेब देती है। कोई भी ज़ुबान अपनी ख़ासियत रखती है। उर्दू ज़ुबान की सबसे बड़ी ख़ासियत इसकी मिठास और इसकी नर्मी है। जो किसी भी सुनने वाले को अपनी तरफ खींचती है। उर्दू ज़ुबान जैसे-जैसे क़रीब आती है, वैसे-वैसे शख़्सियत में नरमी, मिठास और कशिश आने लगती है।
कई नौजवान शायर और नस्र निगार हैरान किए हुए हैं। कमाल लिख रहे हैं। मगर कुछ एक को सुनिये तो अफ़सोस और हैरानी की दोनों कैफ़िय्यतें आपस में ऐसे जज़्ब होकर ज़ाहिर होती हैं कि बयान से बाहर की बात है। ऐसा महसूस होता है कि सामने एक बेइंतिहा ख़ूबसूरत इमारत ताश के पत्तों की तरह ढह रही है। एक तलफ़्फ़ुज़ की ख़ामी क्या ज़ुल्म कर देती है। अस्ल में हर लफ़्ज़ की एक शक्ल और एक आवाज़ होती है जो उस ज़बान के जानने वाले के शऊर और लाशऊर का हिस्सा होती है। जब इमला या तलफ़्फ़ुज़ उस तस्वीर को मजरूह करता है तो शऊर और लाशऊर के तार झनझना उठते हैं और महसूस होता है कि किसी लफ़्ज़ पर ज़ुल्म हुआ है। आंखों के सामने तेज़ी से भागती इस स्क्रीन ने एक बेकनार रचना संसार तो हमारी उंगलियों का ताबे कर दिया है। मगर ठहरने, सीखने और समझने का माद्दा भी ख़त्म कर दिया है। अब हम किसी से कुछ सीखने के ख़्वाहिश-मंद नहीं हैं। अब हमसे जो जल्दी से हो जाए वो ही करना हमें पसंद है, सीखना वो भी नहीं है। हमें एक वक़्त में बहुत सारे काम करने हैं, जैसे हमारे पास वक़्त ही नहीं है।
यही मुआमला उर्दू अदब के चाहने वालों मगर उर्दू जैसा अदब तख़लीक़ करने वालों का है। उन्हें उर्दू ज़बान ख़ासतौर पर उर्दू रस्मुल-ख़त से कोई मतलब नहीं है। उन्हें बस उर्दू अदब आ जाए। फिर चाहे गजल हो, नज्म हो, गालिब हो, जौक हो, फिराक हो, फैज हो, मजाज हो, कैफी आजमी हो, फराज हो, जफर इकबाल हो, अस्मत चुगताई हो, कुरतुल-आइन हो, सादत हसन हो, गबन हो, मुगले-आजम हो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। मगर शख़्स को शख़्सियत बनाना है और अदब में कुछ कर दिखाना है तो ज़ुबान के पांव दाबने होंगे। अपने शीन-क़ाफ़ को अर्जुन और एक्लव्य के तीरों की तरह हमेशा अचूक रखना होगा और यह मुश्किल काम सिर्फ़ ज़ुबान के क़रीब जाने से होगा। ज़ुबान मज़बूत हो गयी तो अदब ख़ुद अपने दरवाज़े खोल देगा। नहीं तो ज़ुबान भी मायूस रहेगी और फ़राज़ का यह शेर भी-
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
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