Wednesday, January 21, 2015

अंबाजी - मान्यताएँ और महिमा


     भारत के विभिन्न धार्मिक स्थानों में अंबाजी अति प्रसिध्द है। यह राजस्थान राज्य की सरहद से लगे गुजरात के बनासकांठा ज़िले की दाँता तहसील में स्थित है। अंबिका वन में आरासुर की पर्वत श्रृंखला में वैदिक सुप्रसिध्द नदी सरस्वती के उद्गम स्थान के नज़दीक अरावली के पुराने पहाड़ों की दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर, 480 मीटर की ऊँचाई पर स्थित, समुद्री सतह से क़रीब 1600 फ़िट ऊँचाई पर कुल लगभग 8.33 वर्ग कि.मी. (5 वर्ग मील) विस्तार में फैला यह स्थान वास्तव में भारत की विख्यात 52 पौराणिक शक्ति पीठों में से एक है।
     देवी भागवत की कथा के अनुसार दानु के पुत्र राक्षस करंभ को भगवान अग्नि ने ऐसा वरदान दिया था कि वह किसी नर मनुष्य से नहीं मारा जाएगा। इसलिए उसने देवों और मनुष्यों की प्रताड़ना शुरू की और उसने यक्ष राज की सुंदर स्त्री 'महिषी' का अपहरण किया एवं जबरन उससे शादी की। इन दोनों की शादी से उन्हें एक काला भयानक राक्षस महिषासुर पुत्र के रूप में पैदा हुआ, जिसने इंद्र से वह किसी भी पुरुष नाम अथवा शस्त्र से न मारा जा सकें ऐसा वरदान पाकर इंद्र व सभी देवताओं को हराया। महिषासुर समस्त ब्रहमांड के लिए एक ख़तरनाक दैत्य बन चुका था, इसलिए सभी देव, भगवान त्रिदेव ब्रहमा (सर्जन के देव), विष्णु (पालन के देव) और महेश (विनाश के देव) के नेतृत्व में आख़िरकार देवी आद्यशक्ति की शरण में गए और उनसे मदद माँगते हुए प्रार्थना की। अतः बाद में आद्यशक्ति, जो सूर्य के प्रचंड किरणों से तेजस्वी हथियार के साथ, जिनकी आभा सृष्टि-उद्गम से निकल रही आण्विक शक्ति की तरह थी, पृथ्वी पर अवतरित हुई और राक्षस महिषासुर को उसकी पवित्र तलवार से मार उसका उध्दार किया और उसी वक्त से वह महिषासुर-मर्दिनी के रूप में जानी गई ।
           महिषासुर के मृत्यु के बाद सभी देवों ने देवी शक्ति की पूजा-अर्चना की, इस पर देवी ने उन्हें यह वचन दिया कि वह एक बार पुनः दक्ष प्रजापति की पुत्री के रूप में जन्म लेगी। देवी के इस अवतार को सती के रूप में जाना गया जिन्होंने अपने पिता की मर्ज़ी के विरुध्द भगवान शिव से विवाह किया था। अतः दक्ष प्रजापति ने अग्नि की साक्षी किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठान बृहस्पति चक्र यज्ञ करते समय अपनी पुत्री और जमाई को न्योता देना टाल दिया, फिर भी सती अपने पिता के यहाँ अनुष्ठान में गई, जहाँ उसके लिए या उसके पति के लिए कोई जगह नहीं थी। इस तरह उसका बहुत अपमान हुआ और उसने अग्निकुंड में कूदकर आत्महत्या कर ली। इस तरह इस अपमान का और अपनी पत्नी सती की मौत का बदला लेते हुए महादेव ने दक्ष प्रजापति की हत्या की और ग़ुस्से में अपनी पत्नी सती का शव लेकर दुनिया में इधर उधर घूमने लगे। इस पर भगवान विष्णु ने देवों की विनती को ध्यान में रखते हुए अपने पवित्र शस्त्र सुदर्शन चक्र से देवी सती के शरीर को 52 टुकड़ों में विभाजित कर विसर्जित कर दिया, ताकि भगवान शिव को मृतक के दुःख से उबारा जा सके। इस तरह सती के मृत देह के टुकड़े पृथ्वी पर जिन जिन स्थान पर पड़े वे सभी 52 स्थान 'शक्ति पीठ' के स्वरूप में ख्यात हुए। 'तंत्र चूड़ामणि' नाम के धार्मिक पुस्तक में एक कथा के अनुसार इन 52 शक्ति पीठों में से आरासुरी अंबाजी शक्ति पीठ वह स्थान है जहाँ देवी शक्ति के हृदय का भाग गिरा था। अतः सभी शक्ति पीठों में अंबाजी अत्यंत महत्वपूर्ण है ।
     देवी शक्ति की पूजा के लिए बारह यात्रा धाम अथवा शक्ति पीठ अत्यंत महत्वपूर्ण है जिनके नाम है :-
1 भगवती महाकाली, उज्जैन                     2 कांचीपुरम में महाशक्ति कामाक्षी
3 मलय गिरि में ब्रहमअंबा                      4 कन्याकुमारी में कुमारिका
5 आनर्त्त (गुजरात) में अंबाजी                    6 कोल्हापुर में महालक्ष्मी
7 प्रयाग में ललिता                            8 विंध्य में विध्यवासिनी  
9 वाराणसी में विशालाक्षी                        10 गया में मंगलवती         
11 बंगाल में सुंदरी भवानी                            12 नेपाल में गुह्य केसरी
     अंबाजी मंदिर से 5 किमी दूरी पर पवित्र पर्वत है जो माता जगदंबा का मूल स्थान माना जाता है। रामायण की कथा के अनुसार, भगवान राम और लक्ष्मण सिताजी की खोज में श्रृंगी ऋषि के आश्रम में पधारे जहाँ पर उनको गब्बर पर देवी अंबाजी की पुजा करने को कहा गया। राम के ऐसा करने पर जगत माता शक्ति (समग्र ब्रहमांड के चेतन-तत्व की माता) ने उन को 'अजय' नाम का चमत्कारिक बाण प्रदान किया, जिससे उन्हों ने युध्द में अपने शत्रु रावण को मात दी। एक कथा यह भी है कि द्वापर युग में भगवान बाल कृष्ण (पालक माता पिता जशोदा और नंद की उपस्थिति में, जिन्होंने भी देवी अंबाजी ओर भगवान शिव की पूजा की थी) के बाल, मुंडन की पवित्र परंपरा का निर्वहन करते हुए, यहाँ पर निकाले गए थे।
     हिंदू शास्त्र और कथाओं के अनुसार गब्बर नाम मूल गब्बर पर्वत के नाम से आया है जहाँ राजा बाली के पुत्र और शोणितपुर के राजा बाणासुर की पुत्री उषा (देवी पार्वती की पुत्री ओखा का पुर्नजन्म) जिसको गुजरात के सांस्कृतिक नृत्य गरबा (गर्भ दीप) परंपरा की सर्जक माना जाता है, ने अनिरुध्द (भगवान कृष्ण का पोता और उनके पुत्र प्रद्युमन का बेटा) के साथ अपनी शादी के बाद यहाँ आरासुर पर्वत पर सर्वप्रथम बार परंपरागत गुजराती गरबा नृत्य की शैली में गर्भ दीप के साथ नृत्य किया। इसके बाद उषा द्वारिका गई और सबको इस गर्भ दीप नृत्य, जिसको वर्तमान में गरबा नृत्य के रूप में जाना जाता है, सिखाया। सर्वप्रथम बार गर्भ दीप नृत्य यहाँ पर किए जाने के कारण इस स्थान को गब्बर कहा जाता है। यह गुजराती गरबा संस्कृति और नृत्य परंपरा का जन्मस्थान बन गया जिसका अपना एक सांस्कृतिक आकर्षण है और पूरे विश्व में फैल गया है।
     पवित्र पुराण महाभारत के अनुसार भाद्रपद महीने के 15 वे दिन यानी पूर्णिमा को राजकुमारी रूकमिनी ने उसकी कुल देवी माता की पूजा इस उदेश्य के साथ की कि उसके अपने भाई और सभी रिश्तेदारों के दुराग्रह और कई राजाओं की इच्छा के विरुध्द उसके प्रिय श्रीकृष्ण उसको स्वयंवर से ले जाए और उससे शादी करें। माता अंबिका ने उसके श्रीकृष्ण के साथ विवाह करने के उदेश्य में सफलता का वरदान दिया। इस तरह राजकुमारी रूक्ष्मणी की शादी भगवान श्री कृष्ण से हुई और उनकी मुख्य राणी बनी और इस ख़ुशी में उसने प्रसिध्द भारतीय त्योहार नवरात्रि पृथ्वी पर सर्व प्रथम बार गर्भगृह नृत्य शैली जो कि गुजराती सांस्कृतिक शैली गरबा में है, अपने सभी मित्रों और रिश्तेदारों के साथ द्वारिका में मनाया।
     महाभारत के पवित्र पुराण के अनुसार पाँडव गुप्त वास यानी अपने वनवास के अंतिम वर्ष यहाँ पर आए थे और उन्होंने माता अंबाजी की पुजा की और गुप्त वास की सफलता के लिए प्रार्थना की। मनमें माता अंबाजी के हवन के लिए सुवर्ण पल्ली बनाने का निश्चय कर उन्हों ने अपने गुप्त वास का समय बिना संकट गुज़र जाए उसके लिए वरदान माँगा। उनकी प्रार्थना से देवी प्रसन्न हुई और उनको दिव्य वस्त्र दिए अर्जुन को पवित्र कवच और भीम सैन को विजय हर माला दी। गुप्त वास सफलता से पूरा होने पर पाँडव उनके और कौरव के बीच का महाभारत युध्द जीतने पर पाँडव यहाँ आए और श्री आरासुरी अंबाजी का मंदिर बनवाया और इस स्थान पर सुवर्ण पल्ली में माता अंबिका की मूर्ति स्थापित की एवं होम और हवन से वैदिक अनुष्ठान कर माता की पूजा की। यह कथा गब्बर पर्वत जाने के रास्ते में एक बड़े पत्थर पर दस्तकारी करके उबारी गई है।
     भारत में मुघल साम्राज्य के समय राणा प्रताप भी अपनी पत्नी को मिलने उसके पिता के घर गुजरात के इडर शहर जाते समय यहाँ अंबाजी शक्ति पीठ पधारे थे। महाराणा प्रताप की सम्राट अकबर से जब लड़ाई चल रही थी तो महा राणी ने यह निर्णय लिया था कि महाराणा यदि दो दिन में उसके पास नहीं पहुँचे तो वह अपनी जान दे देगी। बारिश के दिनों में इडर समय पर पहुँचना अत्यंत कठिन था। अतः महाराणा प्रताप ने अपने कुल देवी माँ अंबा भवानी से प्रार्थना की और यहाँ अंबाजी शक्ति पीठ पर अपने पुरी श्रध्दा से पूजा अर्चना की और वह पहाड़ी रास्तों से इडर की ओर चल दिए। रास्ते में उन्होंने अपने घोड़े चेतक के साथ साबरमती नदी को तैर कर पार करने का प्रयास किया परंतु किसी वजह से चेतक अच्छी तरह तैर नहीं पाया और वह गहरे पानी में चला गया। तद पश्चात महाराणा प्रताप ने एक बार पुनः माँ अंबा भवानी को उनकी ज़िंदगी बचाने के लिए प्रार्थना की और उनके आश्चर्य के बीच वे दोनों सुरक्षित नदी के किनारे लौट आए और महाराणी को मिलने के लिए इडर समय से पहुँच पाएँ। इस तरह माँ अंबा भवानी की कृपा से महाराणा प्रताप बचें। उन्होंने अपनी प्रसिध्द तलवार की माता आरासुरी अंबाजी के चरणों में भेंट दे दी। महाराणा प्रताप की वह तलवार भी यहाँ देखने को मिलती है।
     इस पवित्र स्थान का एक महान चमत्कार यह भी है कि यह विश्व की सुप्रसिध्द शक्ति पीठों में से एक है मतलब की ब्रहमांड की मूल शक्ति के स्रोतों में से एक है। यह सर्वोच्च विश्वव्यापी शक्ति का प्रतीक है। इसीलिए  अंबाजी माता के निज मंदिर में कोई प्रतिमा अथवा चित्र नहीं है, परंतु अंदर की दीवार में छोटी गुफा या सादा गोख है, जिसमें सुवर्ण से मढ़ा पवित्र शक्ति बीसा श्री यंत्र दिखाई देता है, परंतु न तो पहले कभी इसकी फ़ोटो ली गई थी, और न ही भविष्य में ली जाएगी। मंदिर के पुजारी द्वारा शक्तियंत्र के साथ माताजी की इस गुफा को इस तरह से सजाया जाता है कि माना वह माता अंबाजी की प्रतिमा हो। माता अंबाजी की इस झाँकी का या निज मंदिर का फ़ोटो या वीडियो लेना सख़्त मना है। गब्बर पर जो दीप जलता है उसकी लौ चाचर चौक के निरंतर दीप से मिलती है।
     अंबाजी का मुख्य मंदिर छोटा है परंतु बाहर एक विशाल मंडप है। गर्भगृह में माताजी की पवित्र गुफा है और उसके ठीक सामने एक बड़ा चाचर चौक है। अतः माँ अंबाजी को चाचर चौकवाली भी कहा जाता है। अंबाजी की वैदिक पूजा-हवन इसी चाचर चौक में किए जाते है और मंदिर के ऊपर कुल 3 टन वज़न का कलश नीचे से 103 फ़िट ऊँचाई पर स्थित है। यह आरासुर के पर्वत की ख़ानों में से निकाले गए एक विशिष्ट मारबल पत्थर से बना है, जिसको शुध्द सोने से मढ़ा गया है। मंदिर का स्थापत्य अत्यंत विशाल एवं कलात्मक है ।
     अंबाजी के निज मंदिर की अंदरूनी दीवार में स्थित गुफा में लगी इस बीसा यंत्र की पूजा की जाती है न कि माँ अंबिका की किसी प्रतिमा की। यह भी माना जाता है कि श्री यंत्र की पूजा केवल दृढ़ मनोबल के साथ ऑंखों पर पट्टी बाँधे हुए ही की जा सकती है। स्वर्ण जड़ित पवित्र श्री बीसा यंत्र मारबल पत्थर की पट्टी पर लगाया गया है। अलंकार और पवित्र आवरणों से यंत्र को इस तरह सजाया जाता है कि वह माताजी की एक मूर्ति की तरह ही लगे। भारतीय पुराणों और कथाओं के अनुसार यह स्वर्ण जड़ित शक्ति बीसा यंत्र ही संपूर्ण पवित्र श्री यंत्र है। यह स्वर्ण यंत्र का पृष्ठ भाग स्वर्ण का और कूर्म के आकार का है और यह नेपाल और उज्जैन की शक्ति पीठों के मूल यंत्रों से मिलता है और इसमें 51 अक्षर है।

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