*प्राचीन शास्त्रों में भक्ति के 9 प्रकार बताए गए हैं जिसे नवधा भक्ति कहते हैं।*
*श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।*
*अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥*
*श्रवण* (परीक्षित), *कीर्तन* (शुकदेव), *स्मरण* (प्रह्लाद), *पादसेवन* (लक्ष्मी), *अर्चन* (पृथुराजा), *वंदन* (अक्रूर), *दास्य* (हनुमान), *सख्य* (अर्जुन) और *आत्मनिवेदन* (बलि राजा) - इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।
*श्रवण:* ईश्वर की लीला, कथा, महत्व, शक्ति, स्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर सुनना।
*कीर्तन:* ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना।
*स्मरण:* निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना।
*पाद सेवन:* ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्व समझना।
*अर्चन:* मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।
*वंदन:* भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, ब्राह्मण, गुरूजन, माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।
*दास्य:* ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना।
*सख्य:* ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना।
*आत्मनिवेदन:* अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं।
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