अक्सर पढ़ने/सुनने को मिलता है : अमुक व्यक्ति के विचार “आज के संदर्भ में भी उतने ही मौजूं हैं”, “मौजूं बात यह है कि…”,”मौजूं है प्रियंका गांधी का यह सवाल”, “मंटो की कालजयी रचनाएं आज भी मौजूं” या “ये बहस मौज़ूं मालूम होता है”
जहाँ तक मुझे समझ में आया, इन सब में “मौजूं” लफ़्ज़ का इस्तेमाल “उचित”,”समुचित”, “प्रासंगिक” या “relevant” के सेंस में हुआ है।लेकिन जब हम उर्दू में ये शब्द तलाशने की कोशिश करते हैं तो नहीं मिलता। इस सेंस का जो शब्द मिलता/इस्तेमाल होता है वो है, “मौज़ूं”।
जैसे ज़ुबैर फ़ारूक़ का ये शेर देखें :
“इतनी सर्दी है कि मैं बाहों की हरारत मांगू
रुत ये मौज़ूं है कहाँ घर से निकलने के लिए”
यहाँ “मौज़ूं” का मतलब है : “उचित”, “समुचित”, “प्रासंगिक”,”relevant”। ये अरबी से उर्दू में आया है और “मौज़ूं” से “मौज़ूं-तरीन” लफ़्ज़ बना है। जैसे कहते हैं : अमुक व्यक्ति इस ओहदे (पोस्ट/पद) के लिए मौज़ूं-तरीन उम्मीदवार है। यहाँ ये लफ्ज़ most appropriate के सेंस में इस्तेमाल हुआ है।
लेकिन ऐसा देखने/सुनने और पढ़ने में आया है कि लोग “मौज़ूं” का मतलब topic/विषय समझ लेते है या फिर उस सेंस में इस्तेमाल करते हैं।जैसे लोग लिखते/बोलते है : “ख़ैर यह मौज़ूं एक अलग लेख में उठाए जाने चाहिए” या “तवील होने का छींटा किसी बहस का मौज़ूं नहीं बन सकता”।
इन दोनों वाक्यों में मौज़ूं लफ़्ज़ का इस्तेमाल “विषय” के सेंस में हुआ जो कि मुनासिब नहीं है क्योंकि जो लफ़्ज़ इस्तेमाल होना चाहिए वो “मौज़ू” है न कि “मौज़ूं”।
शायद “अब्बास ताबिश” के इस शेर ये “मौज़ू” और वाज़ेह (clear) हो :
“ज़रा सी देर को मौसम का ज़िक्र आया था
फिर उस के बाद तो मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू तुम थे”
इसको इस तरह से भी समझ सकते हैं : “मौज़ूं बहस” मतलब “प्रासांगिक बहस” और “मौज़ू-ए-बहस” का मतलब “बहस का विषय”।
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