Monday, October 5, 2020

ये आलम - ग़ज़ल

ये आलम शौक़ का देखा न जाए 


वो बुत है या ख़ुदा देखा न जाए 


ये किन नज़रों से तू ने आज देखा 


कि तेरा देखना देखा न जाए 


हमेशा के लिए मुझ से बिछड़ जा 


ये मंज़र बार-हा देखा न जाए 


ग़लत है जो सुना पर आज़मा कर 


तुझे ऐ बेवफ़ा देखा न जाए 


ये महरूमी नहीं पास-ए-वफ़ा है 


कोई तेरे सिवा देखा न जाए 


यही तो आश्ना बनते हैं आख़िर 


कोई ना-आश्ना देखा न जाए 


ये मेरे साथ कैसी रौशनी है 


कि मुझ से रास्ता देखा न जाए 


'फ़राज़' अपने सिवा है कौन तेरा 


तुझे तुझ से जुदा देखा न जाए

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