Sunday, December 13, 2020

બાકી છે....

આ ઊંમર તો આવી પહોંચી
      કેટલાક કામો કરવાં બાકી છે,
આ કેશ થયા સૌ ચાંદીનાં
      મનને સોનાનું કરવું બાકી છે.

જરા મહેકી લઉં હું પૃથ્વીથી
      થોડા તારા ગણવાં બાકી છે,
આ વૃક્ષોને પાણી દઈ દઉં,
      પેલા પંખીને ચણ બાકી છે.

ગીતો મસ્તીનાં ખૂબ ગાયાં
      થોડી પ્રાર્થનાઓ હાજી બાકી છે,
મારાં સૌને મેં ખૂબ ચાહ્યા,
      જગને ચાહવાનું બાકી છે.

બસ બહુ જાણ્યાં જીવે સહુને,
       ખુદને ઓળખવું હજુ બાકી છે,
કહે છે ખાલી હાથે જવાનું છે,
       બસ ખાલી થવાનું બાકી છે.

Friday, December 4, 2020

वेद वाणी 2-18-8

न म इन्द्रेण सख्यं वि योषदस्मभ्यमस्य दक्षिणा दुहीत।
उप ज्येष्ठे वरूथे गभस्तौ प्रायेप्राये जिगीवांसः स्याम॥ ऋग्वेद २-१८-८॥


मेरी मित्रता परमेश्वर से सदैव बनी रहे। परमेश्वर का रक्षण सदैव मुझे प्राप्त होता रहे। परमेश्वर सदैव मुझे उत्तम कर्म करने के लिए ज्ञान और प्रेरणा प्रदान करते रहें। जिससे कि मैं अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकूं। (ऋग्वेद २-१८-८) 


May my friendship be with Parmatma forever. I always keep receiving the protection of Parmatma. May Parmatma always provide me the knowledge and inspiration to do noble deeds. So that I can achieve my goal of life. (Rig Veda 2-18-8)

Monday, November 2, 2020

व्हाट्सएप ग्रुप

कार से उतरकर भागते हुए हॉस्पिटल में पहुंचे नोजवान बिजनेस मैन ने पूछा..

“डॉक्टर, अब कैसी हैं माँ?“ हाँफते हुए उसने पूछा।

“अब ठीक हैं। माइनर सा स्ट्रोक था। ये बुजुर्ग लोग उन्हें सही समय पर लें आये, वरना कुछ बुरा भी हो सकता था।" 

डॉ ने पीछे बेंच पर बैठे दो बुजुर्गों की तरफ इशारा कर के जवाब दिया।

“रिसेप्शन से फॉर्म इत्यादि की फार्मैलिटी करनी है अब आपको।” डॉ ने जारी रखा।

“थैंक यू डॉ. साहेब, वो सब काम मेरी सेक्रेटरी कर रही हैं“ अब वो रिलैक्स था।

फिर वो उन बुजुर्गों की तरफ मुड़ा.. “थैंक्स अंकल, पर मैनें आप दोनों को नहीं पहचाना।“

“सही कह रहे हो बेटा, तुम नहीं पहचानोगे क्योंकि हम तुम्हारी माँ के वाट्सअप फ्रेंड हैं ।”एक ने बोला।

“क्या, वाट्सअप फ्रेंड ?” चिंता छोड़ , उसे अब, अचानक से अपनी माँ पर गुस्सा आया।

“60 + नाम का वाट्सप ग्रुप है हमारा।”
“सिक्सटी प्लस नाम के इस ग्रुप में साठ साल व इससे ज्यादा उम्र के लोग जुड़े हुए हैं। इससे जुड़े हर मेम्बर को उसमे रोज एक मेसेज भेज कर अपनी उपस्थिति दर्ज करानी अनिवार्य होती है, साथ ही अपने आस पास के बुजुर्गों को इसमें जोड़ने की भी ज़िम्मेदारी दी जाती है।”

“महीने में एक दिन हम सब किसी पार्क में मिलने का भी प्रोग्राम बनाते हैं।”

“जिस किसी दिन कोई भी मेम्बर मैसेज नहीं भेजता है तो उसी दिन उससे लिंक लोगों द्वारा, उसके घर पर, उसके हाल चाल का पता लगाया जाता है।”

आज सुबह तुम्हारी माँ का मैसेज न आने पर हम 2 लोग उनके घर पहुंच गए..।

वह गम्भीरता से सुन रहा था ।
“पर माँ ने तो कभी नहीं बताया।" उसने धीरे से कहा।

“माँ से अंतिम बार तुमने कब बात की थी बेटा? क्या तुम्हें याद है ?” एक ने पूछा।

बिज़नेस में उलझा, तीस मिनट की दूरी पर बने माँ के घर जाने का समय निकालना कितना मुश्किल बना लिया था खुद उसने।

हाँ पिछली दीपावली को ही तो मिला था वह उनसे गिफ्ट देने के नाम पर।

बुजुर्ग बोले..
“बेटा, तुम सबकी दी हुई सुख सुविधाओं के बीच, अब कोई और माँ या बाप अकेले घर मे कंकाल न बन जाएं... बस यही सोच ये ग्रुप बनाया है हमने। वरना दीवारों से बात करने की तो हम सब की आदत पड़ चुकी है।”

उसके सर पर हाथ फेर कर दोनों बुज़ुर्ग अस्पताल से बाहर की ओर निकल पड़े। नवयुवक एकटक उनको जाते हुए देखता ही रह गया।

Tuesday, October 6, 2020

सहारे, सरक जाया करते हैं...

 अपनी ख़ुशी टाँगने को, तुम कंधे क्यूँ तलाशती हो..?

    कमज़ोर हो, ये वहम क्यों पालती हो..??


ख़ुश रहो क़ि ये काजल, तुम्हारी  आँखों मे आकर सँवर जाता हैं..!

    ख़ुश रहो क़ि कालिख़ को, तुम निखार देती हों..!!


ख़ुश रहो क़ि तुम्हारा माथा, बिंदिया की ख़ुशकिस्मती हैं..!

    ख़ुश रहो क़ि तुम्हारा रोम-रोम, बेशक़ीमती हैं..!!


ख़ुश रहो क़ि तुम न होतीं, तो क्या-क्या न होता..?

    न मकानों के घर हुए होते, न आसरा होता..!!


न रसोइयों से खुशबुएँ ममता की, उड़ रही होतीं..!

     न त्योहारों पर महफिलें, सज रही होतीं..!!


ख़ुश रहो क़ि तुम बिन, कुछ नहीं हैं..!

    तुमसे ये आसमाँ, दिलक़श और ये ज़मीं हसीं हैं..!!


ख़ुश रहो क़ि रब ने तुम्हें पैदा ही, ख़ुद मुख़्तार किया..!

    फ़िर क्यों किसी और को तुमने, अपनी मुस्कानों का हक़दार किया..!!


ख़ुश रहो जान लो क़ि, तुम क्या हों..?

   चांद सूरज हरियाली, हवा हो..!!


खुशियाँ देती हो, खुशियाँ पा भी लो..!

     कभी बेबात, गुनगुना भी लों..!!


अपनी मुस्कुराहटों के फूलों को,अपने संघर्ष की मिट्टी में खिलने दो..!

    अपने पंखों की ताकत को, नया आसमान मिलने दो..!!


और हाँ मत ढूँढो कंधे..!

       क़ि सहारे, सरक जाया करते हैं..!!


😊  सभी महिलाओं को समर्पित.... 

Monday, October 5, 2020

''क़मर” और “कमर” में फ़र्क़

मेरे रश्के क़मर तू ने पहली नज़र…


कुछ बरस पहले ये गाना ख़ूब हिट हुआ और अभी भी ख़ासा पसंद किया जाता है :


“मेरे रश्के क़मर तू ने पहली नज़र जब नज़र से मिलाई मज़ा आ गया”


जब ये गाना आया तो पहले-पहले तो बहुत से लोग इसको “रक़्स-ए-कमर” मान कर चलने/समझने लगे। यहाँ “रक़्स” का मतलब है “डांस/नृत्य” और “कमर” का मतलब कमर/waist। क्योंकि कमर और डांस एक दूसरे से जुड़े हैं इसीलिए लोगों को सही भी लगने लगा। कुछ लोगों को ये “लचके कमर/कमरिया लचके” टाइप लगा !


ये ग़लतफ़हमी बुनयादी तौर पर “क़मर” और “कमर” में फ़र्क़ न करने की वजह से हुआ।


“क़मर” और ”कमर” का फ़र्क़


कमर का मतलब हम ऊपर बयान कर चुके हैं। जबकि “क़मर” का मतलब है “चाँद”। गाने में भी इसी सेंस में इस्तेमाल हुआ है। ये अरबी का लफ़्ज़ है जो कि उर्दू में भी इस्तेमाल भी होता है। इसीलिए “क़मर” लोगों का नाम भी होता है, ठीक उसी तरह से जैसे “महताब”। महताब फ़ारसी का लफ़्ज़ है। महताब का मतलब “चाँद” होता है और “आफ़ताब” का सूरज। आफ़ताब भी फ़ारसी ज़बान से उर्दू में आया है। अरबी में सूरज को “शम्स” कहते हैं ।


“रश्के-क़मर” का मतलब जानने से पहले हम एक और शब्द का मतलब जान लें तो अच्छा होगा। वो है, “रश्क”। इसका अर्थ होता है “ईर्ष्या, जलन”।


जानकारों का कहना है कि “रश्के-क़मर” दरअसल रश्क और क़मर से मिलकर बना है, जिसका मतलब है : चाँद जैसा ख़ूबसूरत, बेहद हसीन, बहुत ख़ूबसूरत या फिर ऐसा हसीन कि चाँद को भी रश्क आये (जलन हो)। जैसे कहते है : “आपको देखकर रश्क होता है”।


इस गाने में भी “रश्के-क़मर” का इस्तेमाल इसी सेंस में हुआ है।


हाँ, एक और बात। वो ये कि “रश्क” और “हसद” में फ़र्क़ होता है। बावजूद इसके कि दोनों का शाब्दिक अर्थ (literal meaning) “जलन” होता है।


“रश्क” और “हसद” का फ़र्क़


उर्दू में “ईर्ष्या, जलन” के अर्थ में दो शब्दों  का इस्तेमाल होता हैं, “रश्क” और “हसद”। दोनों का शाब्दिक अर्थ : डाह, जलन, ईर्ष्या, jealousy, envy, malice होता है ।



अलबत्ता दोनों में बारीक लेकिन बहुत अहम फ़र्क़ है। वो फ़र्क़ है दोनों अल्फ़ाज़ के इस्तेमाल का है।


अगर आसान लफ़्ज़ों में कहा जाये तो ये कह सकते हैं कि “रश्क” का इस्तेमाल positive सेंस में होता है और “हसद” का इस्तेमाल negative सेंस में होता है।


जैसे “रूही कंजाही” का ये शेर देखें :


“कि रश्क आने लगा अपनी बे-कमाली पर


कमाल ऐसे भी अहल-ए-कमाल के देखे”


यहाँ पर शायर कहना चाह रहा है कि “अहल-ए-कमाल” (enlightened/प्रबुद्ध लोगों) का कमाल देखकर अपनी बे-कमाली (अकुशलता) पर रश्क आने लगा।


वहीं “ख़लील तनवीर” का ये शेर देखिये :


“हसद की आग थी और दाग़ दाग़ सीना था


दिलों से धुल न सका वो ग़ुबार-ए-कीना था”


ज़ाहिर है यहाँ “हसद” लफ्ज़ का negative बात बताने के लिए हुआ है। “हसद की आग” वैसा ही phrase है जैसे कहते हैं “बदले की आग”। हिंदी में “हसद” का पर्यायवाची शब्द “डाह” हो सकता है।


चलते चलते : अगर मज़ाक़ करने की इजाज़त हो तो कहना चाहूंगा, आप मुझ पर “रश्क” तो कर सकते हैं लेकिन मुझसे “हसद” करना अच्छी बात नहीं ।

"क़वायद तेज़” के मायने के बहाने उर्दू भाषा के पेच-ओ-ख़म को जानने की कोशिश

अक्सर सुनने और पढ़ने में आता है : “बीपीसीएल को बेचने की कवायद तेज”, “राम मंदिर निर्माण की कवायद तेज, PM Modi करेंगे भूमि पूजन!”,”महाराष्ट्र में सरकार बनाने को लेकर कवायद तेज हो गयी है” या “कोरोना के फैलाव को देख बिस्तरों की संख्या बढ़ाने की कवायद”


जहाँ तक मुझे पता/लगता है ऊपर के वाक्यों में “क़वायद” शब्द का इस्तेमाल “प्रक्रिया” (process) के सेंस में हुआ है जबकि उर्दू में “क़वायद” का मतलब होता है : नियम या नियमावली (Rules), जो कि “क़ायदा” का बहुवचन है। ये शब्द उर्दू में अरबी से आया है। जैसे उर्दू में व्याकरण की किताब को “उर्दू का क़ायदा” कहते हैं।


वैसे क़ायदा से याद आया कि हमारे कुछ साथी अक्सर मज़ाक़ में कहते हैं कि हमारे “खोजी पत्रकारों” का ये हाल है कि अगर किसी मुसलमान के घर से “क़ायदा बग़दादी” बरामद हो जाये तो उसका संबंध “अल-क़ायदा” और “अबुबक्र अल-बगदादी” से जोड़ देंगे।


दरअसल,”क़ायदा बग़दादी/बग़दादी क़ायदा” अरबी सीखने की बुनयादी किताबों में से है। बचपन में क़ुरान पढ़ने से पहले हमने “क़ायदा बग़दादी/बग़दादी क़ायदा” ही पढ़ी थी।


वापस लौटते हैं क़वायद पर। उर्दू में “प्रक्रिया” के लिए जो शब्द है वो है “अमल”। ये भी उर्दू में अरबी से आया है।


जैसे उर्दू में लिखते हैं : “कोरोना वायरस के टेस्टों/टेस्टिंग का अमल तेज़” या “महाराष्ट्र में हुकूमत साज़ी का अमल तेज़”


कुछ लोग ये भी कह सकते हैं क्योंकि “क़वायद” का एक मतलब “परेड”/ “अभ्यास” (military drill) भी होता है इसीलिये प्रक्रिया के लिये “क़वायद” लिखना/बोलना मुनासिब है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि “सरकार बनाने का “परेड”/ “अभ्यास” तेज” क्यों नहीं बोलते/लिखते?


“शफ़्फ़ाफ़” और “सफ़्फ़ाक” फ़र्क़


ये दो ऐसे अल्फ़ाज़ हैं, जिसके बारे में कह सकते हैं : “सावधानी हटी, दुर्घटना घटी”


वो इसलिए क्योंकि “शफ़्फ़ाफ़” और “सफ़्फ़ाक” में बहुत फ़र्क़ है और ध्यान न देने पर अर्थ का अनर्थ हो सकता है।

 शफ़्फ़ाफ़” का मतलब होता है “साफ़ सुथरा”, “निर्मल”, “पारदर्शी” या transparent, clear, clean.


आपने लोगों को “साफ़-शफ़्फ़ाफ़” बोलते सुना होगा, वो भी इसी से सेंस में है।


“अम्मार यासिर” का ये शेर देखें :


“चश्मे के पानी जैसा शफ़्फ़ाफ़ हूँ मैं


दाग़ कोई दिल में है न पेशानी पर”


ध्यान रहे यहाँ चश्मे का मतलब पहने वाला चश्मा नहीं बल्कि झरना/fountain है।


जबकि “सफ़्फ़ाक” का अर्थ होता है : निष्ठुर, अत्याचारी, cruel, tyrant.


जैसे “रज़ा मौरान्वी” का ये शेर देखें :


“ज़िंदगी अब इस क़दर सफ़्फ़ाक हो जाएगी क्या


भूख ही मज़दूर की ख़ुराक हो जाएगी क्या”


इसी तरह निष्ठुर व्यक्ति के लिए “सफ़्फ़ाक़ दिल इंसान” लफ्ज़ का इस्तेमाल करते हैं। या फिर “अत्याचार की पराकाष्ठा” के लिए “सफ़्फ़ाकियत की इंतिहा” लिखते/बोलते हैं।

मेरे पास है ...

لكن  

تذكر  ان  ما تصنعه  الْيوم  لنفسك  ستكسبه في  الغد  سالبا  او  موجبا  

لكن  تذكر  أيضا  ان  الحياة  عبر   

قال تعالى  

فَاعْتَبِرُوا يَا أُولِي الْأَبْصَارِ 

وايضاً قال  

فَاتَّقُوا اللَّهَ يَا أُولِي الْأَلْبَابِ الَّذِينَ آمَنُوا


A rich man looked through his window and saw a poor man picking something from his dustbin ... He said, Thank GOD I'm not poor;


نظر أحد الأغنياء من خلال نافِذتِه فرأى فقيراً يلتقط شيئاً ما من سلَّة القُمامَة فَحَمَد الله وشَكَرَهُ أنه ليس فقيراً؛

  

The poor man looked around and saw a naked man misbehaving on the street ... He said, Thank GOD I'm not mad;


نظر الرجل المسكين حوله وشاهد رجُلاً عارياً يُسِيء السلوك في الشارع وقال الحَمْدُ لله أني لسْتُ بِمَجْنُون؛


The mad man looked ahead and saw an ambulance carrying a patient ... He said, Thank GOD am not sick;


نظر الرجل المجنون إلى الأمام ورأى سيارة إسعاف تَقِلُ مَرِيضًا وقال الحمد لله أَنِي لسْتُ مَرِيضًا؛


Then a sick person in hospital saw a trolley taking a dead body to the mortuary ... He said, Thank GOD I'm not dead;


ومِن ثُم رأى مَرِيضٌ في المُستشْفَى عربةً تَنْقِل جثةً إلى المشرحة فَحَمَد الله وشَكَرَهُ أنه لا يزال حيٌ يُرْزَق؛


Only a dead person cannot thank God;


المَوتَى هُمْ وَحْدَهُم الذين لا يَستطِيعوُن الكلام وشُكْر الله؛


Why don't you thank GOD today for all your blessings and for the gift of life ... for another beautiful day;


فبما أنك لازلت حياً تُرْزَق فلماذا لا تبادر بِشُكْر المَوْلَى عَزَّ وجَلْ على مَنِّهِ وكَرَمهِ وفَضْلِهِ وعلى هبة الحياة ومَنْحِك يوم آخَر جَمِيل؛


What is LIFE?

To understand life better, you have to go to 3 locations:

 

ماهي الحياة؟

لكي تفهم معنى الحياة،   بصورةٍ أفضل، عليك بالتوجه إلى ٣ أماكن:


1. Hospital

2. Prison 

3. Cemetery


١. المستشفى

٢. السجن

*٣. المقبرة 


At the Hospital, you will understand that nothing is more beautiful than HEALTH.


في المستشفى سَتُدْرِك أن  لا شيئ يضاهي نِعْمَة الصِحَة والعافِيَة


 In the Prison, you'll see that FREEDOM is the most precious thing


وفي السجن سَتَعْلَم  أن الحرية لا تُقَدَر بِثَمَن


 At the Cemetery, you will realize that life is worth nothing. The ground that we walk today will be our roof tomorrow.


في المَقبَرَة، سَتُدْرِك أن الحياة لا تُساوِي شيئاً وأن الأرض التي نمْشِى عليها اليوم وستكون السقف الذِي نلتَحِف به غدا؛  


Sad Truth* :  We all come with Nothing and we will go with Nothing ... Let us, therefore, remain humble and be thankful & grateful to God at all times for everything. 


Could you please share this with someone else, and let them know that God loves them 

ये आलम - ग़ज़ल

ये आलम शौक़ का देखा न जाए 


वो बुत है या ख़ुदा देखा न जाए 


ये किन नज़रों से तू ने आज देखा 


कि तेरा देखना देखा न जाए 


हमेशा के लिए मुझ से बिछड़ जा 


ये मंज़र बार-हा देखा न जाए 


ग़लत है जो सुना पर आज़मा कर 


तुझे ऐ बेवफ़ा देखा न जाए 


ये महरूमी नहीं पास-ए-वफ़ा है 


कोई तेरे सिवा देखा न जाए 


यही तो आश्ना बनते हैं आख़िर 


कोई ना-आश्ना देखा न जाए 


ये मेरे साथ कैसी रौशनी है 


कि मुझ से रास्ता देखा न जाए 


'फ़राज़' अपने सिवा है कौन तेरा 


तुझे तुझ से जुदा देखा न जाए

महरूम” और “मरहूम” में फ़र्क़

महरूम का मतलब है : “वंचित” या कोई चीज़ न मिल पाना।


मरहूम का अर्थ है : “दिवगंत” या जो अब इस दुनिया में न हों। उदहारण : “मरहूम” रफ़ी साहब की आवाज़ का कोई सानी नहीं था/है। उस दिन देरी से पहुँचने की वजह से मैं उनकी गायकी सुनने से “महरूम” रहा।


अच्छा, अब ये क़िस्सा सुनिये।ये कोई फ़र्ज़ी कहानी नहीं है बल्कि हक़ीक़त में ऐसा हुआ था। पिछले साल की बात है, हमारे अपार्टमेंट में गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम के मंच से ऐलान हुआ : “जो लोग अभी तक नहीं आए हैं, जल्दी चले आएं वरना पकोड़े से ‘मरहूम’ रह जाएँगे…”


दरअसल, वो “महरूम” कहना चाहते थे !

उर्दू 3

 अक्सर पढ़ने/सुनने को मिलता है : अमुक व्यक्ति के विचार “आज के संदर्भ में भी उतने ही मौजूं हैं”, “मौजूं बात यह है कि…”,”मौजूं है प्रियंका गांधी का यह सवाल”, “मंटो की कालजयी रचनाएं आज भी मौजूं” या “ये बहस मौज़ूं मालूम होता है”


जहाँ तक मुझे समझ में आया, इन सब में “मौजूं” लफ़्ज़ का इस्तेमाल “उचित”,”समुचित”, “प्रासंगिक” या “relevant” के सेंस में हुआ है।लेकिन जब हम उर्दू में ये शब्द तलाशने की कोशिश करते हैं तो नहीं मिलता। इस सेंस का जो शब्द मिलता/इस्तेमाल होता है वो है, “मौज़ूं”।


जैसे ज़ुबैर फ़ारूक़ का ये शेर देखें :


“इतनी सर्दी है कि मैं बाहों की हरारत मांगू


रुत ये मौज़ूं है कहाँ घर से निकलने के लिए”


यहाँ “मौज़ूं” का मतलब है : “उचित”, “समुचित”, “प्रासंगिक”,”relevant”। ये अरबी से उर्दू में आया है और “मौज़ूं” से “मौज़ूं-तरीन” लफ़्ज़ बना है। जैसे कहते हैं : अमुक व्यक्ति इस ओहदे (पोस्ट/पद) के लिए मौज़ूं-तरीन उम्मीदवार है। यहाँ ये लफ्ज़ most appropriate के सेंस में इस्तेमाल हुआ है।


लेकिन ऐसा देखने/सुनने और पढ़ने में आया है कि लोग “मौज़ूं” का मतलब topic/विषय समझ लेते है या फिर उस सेंस में इस्तेमाल करते हैं।जैसे लोग लिखते/बोलते है : “ख़ैर यह मौज़ूं एक अलग लेख में उठाए जाने चाहिए” या “तवील होने का छींटा किसी बहस का मौज़ूं नहीं बन सकता”।


इन दोनों वाक्यों में मौज़ूं लफ़्ज़ का इस्तेमाल “विषय” के सेंस में हुआ जो कि मुनासिब नहीं है क्योंकि जो लफ़्ज़ इस्तेमाल होना चाहिए वो “मौज़ू” है न कि “मौज़ूं”।


शायद “अब्बास ताबिश” के इस शेर ये “मौज़ू” और वाज़ेह (clear) हो :


“ज़रा सी देर को मौसम का ज़िक्र आया था


फिर उस के बाद तो मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू तुम थे”


इसको इस तरह से भी समझ सकते हैं : “मौज़ूं बहस” मतलब “प्रासांगिक बहस” और “मौज़ू-ए-बहस” का मतलब “बहस का विषय”।